घढ़वा धातु ढलाई पद्यति
बस्तर के पारम्परिक घढ़वा धातु शिल्पियों द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली धातु ढलाई पद्यति , लॉस्ट वेक्स प्रोसेस का ही आदिम रूप है। वे अनेक पीढ़ियों से इस पद्यति का अनुसरण करते आ रहे हैं। कालांतर में पुरातन पद्यति में कुछ बदलाव भी हुए हैं परन्तु मूल सिद्धांत जस के तस हैं। धातु ढलाई के कार्य में सारा घढ़वा परिवार सहायता करता है । घर की स्त्रियों और बच्चों की भूमिका इस कार्य में बड़ी महत्वपूर्ण होती है । स्त्रियां सांचों के लिए मिटटी लाती और उसे छानकर कूटकर तैयार करती हैं । वे मूर्ति पर अंलकरण का कार्य करती हैं। सारा परिवार यदि महीने भर काम करे तो गुजारे लायक काम हो जाता है । परंतु यह काम आठ महीने ही चलता है । बरसात के चार महीने अधिकांश घढ़वा खेतीबाड़ी में बिताते हैं ।
घढ़वा लोगों द्वारा मूर्ति बनाने की पद्वति बहुत ही प्राचीन पर सरल है । इसमे समय अधिक लगता है और तकनीक में निपुणता की भी आवश्यकता है । आज भी बस्तर में घढ़वा जाति के लोग ढलाई इसी परम्परागत तरीके से कर रहे हैं ।
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धातु ढलाई कार्यशाला में कार्यरत घढ़वा धातु शिल्पी।
घढ़वा धातु शिल्प की विशिष्टता उसकी निर्माण प्रक्रिया के प्रत्येक सोपान में दिखती है । सबसे पहले खेत से लायी गयी काली मिटटी में धान का छिलका मिलाकर गूंथ लिया जाता है । इस प्रकार तैयार की गई मिटटी से मूर्ति का ढांचा या कोर बनाया जाता है । यदि किसी देवता की मूर्ति बनाई जा रही है, तो पहले उसका पूरा शरीर बनाया जाता है । इसके बाद तैयार आकृति को धूप मे सूखने को रख दिया जाता है । सूखने पर इस पर नदी किनारे से लाई गई महीन मिटटी में गोबर मिलाकर दूसरी परत चढ़ाई जाती है । दूसरी परत चढाने पर आकृति में पहले से अधिक सफाई आ जाती है । सूखने पर इस आकृति की उपरी सतह को टूटे हुए मटके के खपरे से रगड़ा जाता है । इस प्रकार रगड़ने से मूति सुडौल हो जाती है और उसकी उपरी सतह चिकनी हो जाती है । इस समय मूर्ति यदि बैडोल नजर आती है तो खपरे के टुकडें से रगड़ने से जो बारिक मिटटी इक्कठी होती है उसे गूंद कर पुनः मूर्ति को सुडौल बनाने के लिए कहीं-कहीं मिटटी लगाई जाती है । इस प्रक्रिया के उपरांत मूर्ति को सुडौल व चिकना बनाने के लिए फिर से खपरे से रगड़ा जाता है ।सुडौल कोर तैयार हो जाने के बाद उसपर मोम के तार से काम किया जाता है। परन्तु मोम के तार के काम करने से पहले कोर पर सेम की पत्ती रगड़ते हैं। इससे मोम मिटटी पर चिपक जाता है।
मोम के तार बनाने के लिए पहले तो केवल मधुमक्खी के छत्ते का मोम ही प्रयुक्त किया जाता था परन्तु बाद में इसमें पैराफिन वेक्स मिलाया जाने लगा। मोम के तार तैयार करने के लिए , मोम को सबसे पहले एक बर्तन में रखकर गर्म किया जाता है । पिघले हुए मोम को सूती कपड़े से छानते हुए पानी भरे बर्तन में इक्कठा किया जाता है। साफ किये गए मोम में कभी-कभी थोड़ा सा सरसो, अलसी, तिल अथवा महुआ का तेल मिलाया जाता है जिससे मोम में लोच आ जाती है । इस मोम को पिचकी (यह एक प्रकार का यंत्र ) में रखकर और दबाकर, मोम का तार निकाला जाता है । यह तार धागे के समान बारीक होता है, जो नरम होने के बावूजद टूटता नहीं है । मोम के इस तार से मूर्ति की उपरी सतह पर सभी बारीक काम किये जाते हैं । देह का टैक्सचर मोम के तार से ही बनाया जाता है । मूर्ति के हाथ-पैर, आंख, कान, नाक एवं अन्य अलंकरण मोम के द्वारा ही बना दिये जाते हैं । इस समय मूर्ति के वह सभी विवरण मोम द्वारा बना लिए जाते हैं जो धातु की मूर्ति में अंतिम रूप से चाहिए। यदि हम यह कहें कि यह धातु की बनी मूर्ति का मोम में बना प्रतिरूप होता है तो गलत न होगा । जब ठोस आकृति बनानी होती है तब प्रतिमा का कोर नहीं बनाया जाता , आकृति मोम से ही बना दी जाती है।
मूर्ति पर मोम लपेटने के बाद उसपर पुनः मिटटी चढाई जाती है, यह मिटटी तैयार करने के लिए नदी किनारे की मिटटी, कोयले का पावडर ओर सूखे गोबर के मिश्रण को कपडे़ से छाना जाता है । छानने पर प्राप्त बारिक मिश्रण को पानी में गूंथ कर, मोम चढ़ी मूर्ति पर चढ़ाया जाता है । इसके बाद दीमक की बाम्बी से लाइ गयी मिटटी में चावल का छिलका मिलाकर तैयार की गई मिटटी से मूर्ति पर एक मोटी परत चढ़ाई जाती है । इसी समय सांचे के निचले भाग में विशेष रूप से बनाये गए मिटटी के कटौरे में मूर्ति के अनुपात के अनुरूप, आवश्यक पीतल रख लिया जाता है । अब इस कटौरे को मूर्ति के पैर की तरफ से उसी मिटटी से जोड़ दिया जाता है । इस प्रकार तैयार किए गए सांचे को धूप में सूखने के लिए रख दिया जाता है ।मोम से तैयार मूर्ति को धातु में ढालने हेतु तैयार सांचे के सूखने पर इसे भट्ठी में इस प्रकार रखा जाता है कि पीतल रखे कटोरे वाला भाग नीचे रहे तााकि उसे सीधी आंच लग सके । भट्ठी एक फीट गहरी और लगभग इतनी ही चौड़ी होती है । भट्ठी में मूर्ति रखकर उसके उपर भी लकड़ी, कोयला आदि रख दिया जाता है । अब भट्ठी में आग लगा दी जाती है । इस भट्ठी को धौंकनी से हवा भी दी जाती है ।
भट्ठी की आग से गर्मी पाकर मूर्ति के सांचे से जुडे कटोरे में रखा हुआ पीतल पिघलकर तरल हो जाता है । इसी समय गर्मी पाकर मूर्ति में लपेटा हुआ मोम भी पिघलता है जिसे सांचे की मिटटी सोख लेती है । चुंकि मोम के दोनो ओर मिटटी की परत होती है और मोम पिघलकर सूख जाता है, इस कारण मोम द्वारा घेरी गई जगह खाली हो जाती है और उसके स्थान पर मूर्ति का एक रिक्त सांचा बन जाता है । इसी समय भट्ठी में रखे सांचे को उलट दिया जाता है जिसके परिणाम स्वरूप पिघला हुआ पीतल इन सांचों से होता हुआ पूरी मूर्ति पर फैल जाता है और रिक्त जगह भर जाती है। अब इस सांचे को भट्ठी से निकाल कर ठंडा करने से पीतल जम जाता है और मूर्ति तैयार हो जाती है ।आजकल सांचे में पीतल रखकर मूर्ती ढालने का चलन कम हो गया है। पीतल को अलग क्रूसिबल में लेकर आग पर गलाने का प्रचलन लोकप्रिय हो गया है। इस विधि में पीतल को अलग पिघलाकर सांचे में डाला जाता है।
बस्तर की परंपरागत धातु शिल्प निर्माण की प्रक्रिया कुल बारह चरणों में पूरी होती है ।
बनाई जाने वाली प्रतिमा का कोर बनाने में खेत से लायी गयी काली मिटटी और धान का छिलका प्रयुक्त किया जाता है।
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खेत से लायी गयी काली मिटटी में धान का छिलका मिलाकर गूंथ लिया जाता है ।
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तैयार की गई मिटटी से मूर्ति का ढांचा या कोर बनाया जाता है ।
तैयार ढांचा या कोर को धूप मे सूखने को रख दिया जाता है ।
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इस समय कोर यदि बैडोल नजर आती है तो बारिक मिटटी गूंद कर पुनः मूर्ति को सुडौल बनाने के लिए कहीं-कहीं मिटटी लगाई जाती है ।
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कोर को सुडौल व चिकना बनाने के लिए खपरे से रगड़ा जाता है ।
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सेम की पत्ती
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इस प्रकार सुडल की गई मूर्ति की उपरी सतह पर सेम की पत्ती रगड़ी जाती है । इससे पत्ती का रस मूर्ति की उपरी सतह पर लग जाता है । हरी पत्ती रगड़ने से मूर्ति पर लपेटा जाने वाला मोम झड़ता नहीं है, चिपका रहता है ।
पत्ती रगड़ने के बाद मूर्ति पर मोम का तार लपेटा जाता है।मोम मधुमक्खी के छत्ते का होता है। पत्ती रगड़ने के बाद मूर्ति पर मोम का तार लपेटा जाता है
मोम के तार तैयार करने के लिए , मोम को सबसे पहले एक बर्तन में रखकर गर्म किया जाता है । पिघले हुए मोम को सूती कपड़े से छानते हुए पानी भरे बर्तन में इक्कठा किया जाता है। साफ किये गए मोम में कभी-कभी थोड़ा सा सरसो, अलसी, तिल अथवा महुआ का तेल मिलाया जाता है जिससे मोम में लोच आ जाती है । इस मोम को पिचकी (यह एक प्रकार का यंत्र होता है) में रखकर और दबाकर, मोम का तार निकाला जाता है । यह तार धागे के समान बारीक होता है, जो नरम होने के बावूजद टूटता नहीं है । मोम के इस तार से मूर्ति की उपरी सतह पर सभी बारीक काम किये जाते हैं । देह का टैक्सचर मोम के तार से ही बनाया जाता है । मूर्ति के हाथ-पैर, आंख, कान, नाक एवं अन्य अलंकरण मोम के द्वारा ही बना दिये जाते हैं । इस समय मूर्ति के वह सभी विवरण मोम द्वारा बना लिए जाते हैं जो धातु की मूर्ति में अंतिम रूप से चाहिए। यदि हम यह कहें कि यह धातु की बनी मूर्ति का मोम में बना प्रतिरूप होता है तो गलत न होगा ।
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मोम के तार बनाने के लिए धूप , मधुमक्खी का मोम एवं पैराफिन मोम प्रयुक्त किया जाता है।
पिघले हुए मोम को सूती कपड़े से छानते हुए पानी भरे बर्तन में इक्कठा किया जाता है।
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साफ किये गए मोम में कभी-कभी थोड़ा सा सरसो, अलसी, तिल अथवा महुआ का तेल मिलाया जाता है जिससे मोम में लोच आ जाती है ।
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मोम को पिचकी (यह एक प्रकार का यंत्र होता है) में रखकर और दबाकर, मोम का तार निकाला जाता है ।
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मोम के इस तार से मूर्ति की उपरी सतह पर सभी बारीक काम किये जाते हैं ।
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देह का टैक्सचर मोम के तार से ही बनाया जाता है ।
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मूर्ति के हाथ-पैर, आंख, कान, नाक एवं अन्य अलंकरण मोम के द्वारा ही बना दिये जाते हैं ।
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मोम द्वारा तैयार की गयी आकृति को पानी में रखा जाता है ताकि वह बेडौल न हो जाये।
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जब ठोस आकृति बनानी होती है तब प्रतिमा का कोर नहीं बनाया जाता , आकृति मोम से ही बना दी जाती है।
दीमक की बाम्बी जिसकी मिट्टी का प्रयोग घढ़वा धातु शिल्पी करते हैं.
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दीमक की बाम्बी से लाइ गयी मिटटी में चावल का छिलका मिलाकर तैयार की गई मिटटी से मूर्ति पर एक मोटी परत चढ़ाई जाती है ।
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तैयार किए गए सांचे को धूप में सूखने के लिए रख दिया जाता है ।
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मूर्ति के अनुपात के अनुरूप, आवश्यक पीतल रख लिया जाता है ।
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पीतल को क्रूसिबल में रखकर भट्टी में पिघलाने हेतु रखा जाता है।
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सांचे को भट्टी में रखकर गर्म किया जाता है जिससे मोम जल जाता है।
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गर्म सांचे को भट्टी से निकालकर बाहर रखते हैं।
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पिघला हुआ पीतल क्रूसिबल से गर्म सांचे में डालते हैं।
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सांचे को भट्ठी से निकाल कर ठंडा करने से पीतल जम जाता है और मूर्ति तैयार हो जाती है ।
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साँचा तोड़ कर तैयार मूर्ती बाहर निकाली जाती है और उसे साफ़ किया जाता है।
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तैयार मूर्ती।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.