झारखंड के नेतरहाट के पठार पर रहने वाले असुर आदिवासी दुनिया के सबसे पुराने लौहविज्ञानी और धातुकर्मी हैं। ऐसा माना जाता है किइन्होंने ही लौह पत्थरों की पहचान कर उसका शोधन किया जिससे लोहे का निर्माण संभव हो पाया। असुर आदिवासी समुदायभारत सरकार की उस सूची में शामिल है जिन्हें विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पी.वी.टी.जी)[1] कहा जाता है। असुरों की मान्यता हैकि लोहा बनाने का काम सबसे पहले सुकरा और सुकराईन नामक उनके दो पूर्वजों ने शुरू किया था। यह लेख उनकी लौह कला की प्रक्रियाका चित्रात्मक विवरण है।
लोहा बनाने के लिए सबसे पहले वैसे पत्थरों (लौह अयस्क) की पहचान की जाती है जिनके शोधन से लोहा मिल सकता है। लौहअयस्क वाले इन पत्थरों को असुर लोग ‘दीरी टुकू' कहते हैं। इनका शोधन करने से पूर्व इनको तोड़-तोड़कर इनके छोटे-छोटे टुकड़े कर लिएजाते हैं।
नोट: - लेख में इस्तेमाल ज़्यादातर फोटोग्राफ स्वर्गीय श्री विजय गुप्ता के लिए हुए हैं। 5 जनवरी, 1979 को जन्मे विजय गुप्ता रांची, झारखंड के युवा फोटो जर्नलिस्ट, सिनेमेटोग्राफर और डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर थे। मात्र 35 वर्ष की आयु में इनका असामयिक निधन 2 अक्टूबर, 2014 को हो गया। ये आदिवासियों के सामुदायिक संगठन ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे और अपनी मृत्यु से पहले असुरों का विजुअल डॉक्यूमेंटेशन कर रहे थे। इस लेख में शामिल उनके फोटोग्राफ लेखिका को उनकी पत्नी मनोनीत तोपनो और अखड़ा संगठन ने उपलब्ध कराए हैं।
[1] असुर आदिवासी समुदाय देश के उन 75 आदिवासी समुदायों में से एक हैं जिन्हें भारत सरकार के जनजातीय मंत्रालय ने आदिम जनजाति (primitive tribe- पुराना नाम) वर्ग अर्थात विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह Particularly Vulnerable Tribal Groups यानी PVTGs के रूप में आज भी ‘असुर’ नाम से ही सूचीबद्ध किया है। मुंडा, संताल (संथाल), हो, खड़िया, असुर आदि आदिवासी समुदाय नृजातीय रूप से एक ही मानववंशी समूह ‘प्रोटो ऑस्ट्रालॉयड’ (आग्नेय) के अंतर्गत आते हैं।