बस्तर का देवकुल और उनकी प्रतिमाएं
वर्तमान बस्तर के आदिवासियों की धार्मिक मान्यताएं उनके अपने पुरातन विश्वासों एवं हिन्दुओं के निकट सम्पर्क से पड़े प्रभाव का मिलाजुला बहुत ही जटिल रूप है। । बस्तर का क्षेत्र इतना बड़ा है और लोग इतनी विविधता लिये हैं कि किसी एक धारणा को सम्पूर्ण बस्तर पर लागू करना अतिसाधारिणीकरण होगा।
यहाँ के निवासियों में आज भी विशुद्ध आदिवासी विश्वासों से लेकर हिन्दू मान्यताओं के मिश्रण के अनेक चरण एक साथ देखे जा सकते हैं। इसका सबसे रोचक तथ्य यह है कि यहाँ विश्वास और मान्यताएं केवल आदिवासियों द्वारा हिन्दुओं से नहीं ली गयी हैं बल्कि यहाँ बसने वाली हिन्दू जातियां भी ऐसे ही विश्वासों में जीती है सामान्यत: कोई विश्वास या मान्यता यहाँ जातिगत न होकर स्थानीय होती है जिसे इस क्षेत्र के सभी लोग मानते हैं ।
बस्तर के मूल आदिवासी विश्वासों एवं पूजा–पद्यति में मूर्ति पूजा का कोई स्थान नहीं दीखता। देवी देवताओं की मूर्तियों का प्रचलन बाद में हुआ है। आदिवासियों के घर , गांव में बने देव स्थानों में मूर्तियां आवश्यक अंग नहीं हैं। अधिकांश आदिवासी देव स्थानों में देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व कोई अनघढ़ पत्थर , लकड़ी , लोहा, धातु का टुकड़ा अथवा शंख, कौढ़ी या घंटी जैसी कोई वास्तु करती है। जात्रा और मढ़ई आदि में भी देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व उनकी मूर्तियां नहीं बल्कि डोली, विमान, आंगा , डांग, छत्र एवं कुर्सी आदि करते हैं। यह सभी उपादान एक प्रकार के चलायमान देव स्थान की भूमिका निभाते हैं। मूर्ति के स्थान पर यहां स्वयं देवी-देवता ही, सिरहा के माध्यम से लोगों से सीधा संपर्क रखते आए हैं। अत : आज बढ़ते हिन्दू प्रभाव के कारण मूर्तियों के प्रचलन के उपरांत भी, इन मूर्तियों को कोई केंद्रीय भूमिका प्राप्त नहीं है। वे देवता के प्रतिनिधि नहीं बल्कि फूल, धूप और नारियल की तरह उन्हे चढ़ाई जाने वाली वस्तु जैसी हैसियत रखती हैं। वे मनौतियां पूरी होने पर भक्तों द्वारा देवी-देवताओं पर चढ़ाया जाने वाला चढ़ावा होती हैं।
अपने पारिवारिक देवस्थान में देव प्रतिमाओं को नमन करता ओझा आदिवासी , कनेरा गांव , बस्तर ।
बस्तर में देव प्रतिमाएं किस प्रकार बनना आरम्भ हुई होंगी यह निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता। बोरई गांव के मांझी, भीखराय समरत कहते हैं, कि बस्तर के राजा प्रतिदिन प्रात: सबसे पहले दंतेश्वरी की पूजा करते थे, बिना पूजा वे कोई काम शुरू नहीं करते थे। जब वे जगदलपुर से रायपुर के लिए हाथी से सफर करते थे, तब रात को जिस गांव में पड़ाव करते थे वहीं , सुबह वे दंतेश्वरी की पूजा भी करते थे। इसके लिए उन्होंने उन गांवों में दंतेश्वरी की स्थापना कराई और उसके पुजारी नियुक्त किये। सम्भवत: इससे आदिवासियों में भी देव प्रतिमाएं लोकप्रिय हुई होंगी।

जगदलपुर हाट बाजार से अपने देव स्थान के लिए देवी प्रतिमा खरीद कर ले जाता गोंड आदिवासी।
बस्तर में बनाई जाने वाली देव मूर्तियों के सम्बंध में आमाडीह गांव में एक रोचक कथा सुनने को मिली। इस गांव में राजाज्ञा से मुंद्रामावली माता की स्थापना कराई गयी। बाद में देवी ने पुजारी को स्वप्न में कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनवाओ। गांव के लोग मिलकर कोण्डागांव के चंदन घढ़वा के पास गए। घढ़वा ने पूछा मूर्ति कैसी होगी? इसका जवाब गांव वाले नहीं दे सके। तब देवी ने स्वयं चन्दन घढ़वा को सपने में बताया कि मूर्तियों का स्वरूप कैसा होना चाहिए। इस प्रकार यह मूर्तियां बनीं।
वास्तव में ऐसी कथाएं लगभग प्रत्येक ग्रामीण क्षेत्र में सुनने को मिल जाती हैं । इस परंपरा का लिखित इतिहास में कोई वर्णन नहीं मिलता। यह सब मूर्ति बनवाने वाले लोगों एवं मूर्ती बनाने वाले कारीगरों के विश्वास और पसंद पर निर्भर करता है। प्रचलित कथा के अनुसार मूर्ति के बनाने के सम्बन्ध में देवी ने सारे निर्देश, घढ़वा को स्वयं दिए हैं, अत: घढ़वा जैसी भी मूर्ति बना देगा वह लोगों को स्वीकार होगी, उसमें किसी के कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं उठता।
अनेक घढ़वा कहते हैं की जैसे हमारे पुरखे बनाते थे , वैसे ही मूर्ति हम बना देते हैं । अनेक पुजारियों से बात की तो वे कहते हैं, जैसे घढ़वा बनाकर दे देते है हम ले आते हैं। अत: यह तो निश्चित है की बस्तर में माता मूर्तियों का कोई सर्वमान्य -सर्वज्ञात रुप विधान नहीं है।
बहुत ही कल्पनाशील सुखचंद घढ़वा कहते हैं कि यह सच बात है कि कौन मूर्ति किस देवी की है यह कोई पक्की तरह नहीं बता सकता, किन्तु इन्हे बनाते समय कुछ सूत्र अवश्य ध्यान में रखे जाते हैं। जैसे राजाघर की देवी होने के कारण दंतेश्वरी और मालवी माता को हाथी पर बैठा बनाया जाता है, गोंडिन माता के हाथ में सब्बल और बगल में टोकरी रहती है , बूढ़ी माता हाथ में मंजूर मूठा पकड़ती है, आदि।
लगभग ९० वर्षीय, बस्तर के वरिष्ठ धातु शिल्पी , सुखचंद घढ़वा जिन्हें भारत सरकार ने राष्ट्रिय पुरस्कार से सम्मनित किया था।
बस्तर में देवी– देवताओं की संख्या अनगिनित है, कुछ देवी देवता ऐसे भी हैं जिनका नाम सभी स्थानों पर सुनने को मिलता है परन्तु अधिकांशत : प्रत्येक गांव में नए नए देवी देवताओं के नाम सुनने को मिलते हैं। यदि इन्हे वर्गीकृत किया जाए तो निम्न प्रकार रखा जा सकता है:
- देवी-देवता जिन्हे सम्पूर्ण बस्तर में माना जाता है, जिनकी सत्ता सारे बस्तर पर है ,जैसे दंतेश्वरी माई।
- देवी-देवता जिनकी मान्यता परगने स्तर पर है, जैसे कोटगुड़िन माता कोंडागांव परगने की देवी है।
- ग्राम स्तर के देवी देवता, आमतौर पर पाट देव के आँगा ग्राम स्तर के होते हैं जिनकी मान्यता ग्राम विशेष में होती है।
- पारिवारिक देवी -देवता , यह आवश्यक नहीं की प्रत्येक परिवार का अपना व्यक्तिगत देवी- देवता हो पर अनेक परिवारों (एक गोत्रा के सभी कुटुम्बियों ) का अपना देवता होता है जिसकी वे पूजा करते है जैसे गोबरइन माता।
देवी-देवताओं का वर्गीकरण उनके पूजे जाने के स्थान के अनुसार से भी किया जा सकता है। जैसे:
- गांव के अन्दर देवस्थान में पूजे जाने वाले देवी देवता, जैसे-- भूमिहार
- घर के देवस्थान में पूजे जाने वाले देवी देवता, जैसे- गोंडिन देवी
- जंगल में वृक्षों के झुरमुट में बनाये गए देवस्थान में पूजे जाने वाले देवी देवता, जैसे --गादीमाई
- गांव के बाहर बनाये गए देवस्तथान मे पूजे जाने वाले देवी देवता, जैसे भीमा डोकरा या भीमा देव
यद्यपि हल्बी बोली में देव के लिए 'पेन' शब्द है परन्तु आजकल बस्तर में आमतौर पर स्त्री और पुरुष दोनो ही देवों के लिए 'देवी' शब्द का प्रयोग किया जाता है और लोग इस बात पर बहुत ध्यान भी नहीं देते हैं। यहां देवस्थानों के नाम भी अलग अलग होते है जैसे:
मंदिर: दंतेश्वरी माता का देवस्थान मंदिर कहलाता है।
माता गुढ़ी : माताओं का देवस्थान मातागुढ़ी कहलाता है इसे देवी गुढ़ी या गुढ़ी भी कहते हैं।
राउड़ : पाटदेव का देवस्थान को राउड़ कहा जाता है, जहां आंगा रखा जाता है।
झाला: वृक्ष की टहनियों से बनाया गया देवी का अस्थायी स्थान झाला कहलाता है।
कुमड़ा कोट में वृक्ष की टहनियों से बनाया गया देवी का अस्थायी स्थान झाला ।
आदिवासी देव चिन्ह
दंतेश्वरी के मंदिर को छोड़कर, कोट एवं गुढ़ी में कई देवी -देवता एक साथ रह सकते हैं। बस्तर में मातृ देवियों की प्रमुखता है। इन्हें बत्तीस बहना भी कहा जाता हैं। अर्थात: यह बत्तीस माताएं हैं जो आपस में बहने हैं। इनमे सबसे प्रमुख दंतेश्वरी माता और मावली माता हैं। इनकी अन्य बहने हैं - हिंगलाजन माता , भण्डारिन माता , तेलिनमाता , बंजारिन माता , कंकालिन माता, खण्डा कंकालिन माता, बूढ़ी माता, गंगोदेई माता, भुसरसिन माता, गंगुआ माता , लाडली माता, जलनी माता , लेने मुरताल माता, डोंगरी माता, परदेसिन माता, तेंगलगिन माता, करनाकोटिन माता, गादी माई , कोट गढ़िन माता, पाट माता, सोनि माता , कोकड़ी माता, लाड़ली देइआदि हैं। इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवता भी हैं इनमें से जिनकी मूर्तियाँ अधिकांशत : प्रचलन में हैं और जिनके रूप पहचाने जा सकते हैं वे निम्न हैं :
दंतेश्वरी माता: यह राजा घर की देवी है, प्रमुख मंदिर दंतेवाड़ा एवं जगदलपुर राजमहल में है। सभी प्रमुख गांवो में इनका मंदिर होता है। बस्तर की प्रमुख देवी है। दशहरे पर निकलने वाले रथ पर इनके नाम का छत्र निकाला जाता है। इन्हे बकरा, मुर्गा, भैंसा आदि बलि दिया जाता है। इनकी प्रतिमा में सिर पर मुकुट धारण किए, चार भुजाओं वाला बनाया जाता है। हाथों में हज़ारी फूल, ढाल, खप्पर, बनाये जाते हैं । दोनों कन्धों को जोड़ती वहाड़ी (एक प्रकार का चंदोवा) बनाई जाती है।
दंतेश्वरी माता
बूढ़ी माता : इस माता देवी की मूर्ति में इन्हे दाहिने हाथ में खांडा (तलवार) , बायें हाथ में झुमकी बड़गी ( एक बड़ी लाठी ) जिसके उपरे सिरे पर फूला हुआ गोला बना होता है, बनाया जाता है। इनके सिर पर मुकुट, गले में माला, दोनों कंधों को जोड़ती गोल वहाड़ी बनायी जाती है। इनका स्थान गांव की मातागुढी में होता है। प्रत्येक वर्ष माघ या चैत्र माह में शनि या मंगलवार को इसकी पूजा होती है। लोग स्वत: अपने घर में भी इन्हे पूजते हैं। वे अपने घर के गुढी में भी इसका स्थान बना लेते हैं। किसी भी बीमारी या संकट के समय इसकी मान्यता करते हैं। इसे बकरा, मुर्गा चढ़ाते हैं।
बूढ़ी माता
खाण्डा कंकालिन माता: इस देवी की मूर्ति में इनके दो या चार हाथ बनाये जाते हैं , दो से सिर पर रखे खप्पर को पकड़े रहती हैं और दो हाथ में तलवार- ढाल पकड़े बनाया जाता है। कई बार इसे जीभ बाहर निकाले हुए भी बनाया जाता है। हाथ में पकड़ी तलवार विशेष आकार की होने के कारण खाण्डा कहलाती है। इसलिए इसे खण्डा कंकालिन माता भी कहते है। इनका मंदिर भी अलग बनाया जाता है। परन्तु कभी इन्हे घर में भी पूजा जाता है। इनकी पूजा प्रत्येक शनिवार और मंगलवार को की जाती है। बकरा, मेंढ़ा बलि दिया जाता है। चेचक के समय इन्हे विशेष रूप से पूजा जाता है।

खाण्डा कंकालिन माता
माढ़ीन माता : बस्तर में माढ़ का अर्थ पहाड़ी पर्वतीय क्षेत्र से लिया जाता है। अत: यह देवी माढ़ क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है। इसकी धातु प्रतिमा में इसे एक हाथ में एदन वृक्ष का पत्ता और दूसरे में बढ़गी पकड़े बनाया जाता है।'
माढ़ीन माता
फिरन्ता माता : प्रतिमा में इसे सिर पर मुकुट, दाहिने हाथ में खप्पर, बायें हाथ में झुमकी-बड़गी लिए बनाया जाता है। दोनों कंधो को जोड़ती इसकी वाहड़ी बनाई जाती है। कान में खिलंवा ( गहना ) पहने बनाया जाता है। इसका स्थान गांव या घर की गुढी में होता है। मान्यता है कि यह एक स्थान नहीं रूकती , गांव -गांव घूमती है। इसलिए इसे फिरन्ता माता कहा जाता है।
यह चेचक लाने वाली देवी है। इसे बकरा, मुर्गा , फूल , पान ,सुपारी चढ़ाते हैं । इसकी पूजा माघ या चैत्र माह में शनिवार या मंगलवार को करते हैं । लोग सामूहिक रूप से या स्वत : इसकी पूजा करते हैं ।
फिरन्ता माता
मावली माता : प्रतिमा में इसे सिर पर मुकुट, दाये हाथ में ढाल त्रिशूल ,बायें हाथ में खप्पर जिसमें चावल, नारियल , फूल रखने के लिए बनाया जाता है। इसे आसन यानि हाथी पर बैठा या रथ पर बैठा बनाते हैं । दोनों कंधों को जोड़ती वहाड़ी बनाई जाती है। इस देवी का प्रमुख स्थान जगदलपुर में है। गांव की मातागुढी में भी इसका स्थान होता है। कई धनवान लोग इसे अपने घर में भी पूजते हैं । दशहरा में इसकी पूजा होती है। पहले इसे नरबलि दी जाती थी, अब बकरा, मेढक, भैसा आदि बलि देते हैं । गांव से सरे लोग चंदा करके इन्हे दशहरे पर बलि देते हैं । सारे बस्तर की रक्षक देवी मानी जाती है। मावली माता गोंड आदिवासियों की अति प्रमुख मातृदेवी है। इस देवी का वर्त्तमान निवास स्थान मावली पठार में है। आदिवासियों का विश्वास है कि मावली माता दंतेश्वरी देवी की बुआ लगती है और इस कारण उनका स्थान दंतेश्वरी देवी के ऊपर है।
मावली माता
परदेसिन माता: इनकी प्रतिमा में इन्हें सिर पर मुकुट धारण किए हुए, हाथ में खप्पर एवं त्रिशूल लिए बनाया जाता है।

परदेसिन माता
बच्चा वाली परदेसिन माता: इनकी प्रतिमा में इन्हें सिर पर मुकुट धारण किए हुए, हाथ में खप्पर एवं त्रिशूल लिए बनाया जाता है। यह गोदी में अपना बच्चा लिए रहती है।

बच्चा वाली परदेसिन माता
हिंगलाजिन माता : एक हाथ में खीले तथा दूसरे में रक्त भरा खप्पर अथवा प्याला लिए होती है। इनका निवास ग्राम केसरपाल, बैगनगांव तथा कोण्डागांव में माना जाता है।
हिंगलाजिन माता
तेलंगिन माता / कारी तेलंगिन माता : देवी के हाथ में त्रिशूल तथा दूसरे में रक्त खप्पर है। इनका वास केशकाल घाट है।

तेलंगिन माता / कारी तेलंगिन माता
बंजारन माता: घाघरा और कान में कुण्डल पहने इस देवी के एक हाथ में मयूरपंखी का पंखा तथा दूसरे हाथ में थाली है। इस देवी को बंजारा आदिवासी मानते है, जो चान्दा तथा गोदावरी नदी से जाने वाले पुरातन व्यापारिक मार्ग में कार्यशील रहे हैं।
बंजारन माता
झिटकु और मिटकी : इस देव युगल के अनेक नाम हैं । इन्हें डोकरा - डोकरी , डोकरी देव, गप्पा घसिन , दुरपत्ती माई, पैंड्राऔण्डनी माता, गौडिन देवी और बूढ़ी माई भी कहा जाता हैं । इनकी मूर्ति में देवी माता को सिर पर मुकुट धारण किए , कान में खिलंवा पहने, बायें हाथ में सब्बल और टोकरी लिए बनाया जाता हैं ।
झिटकु और मिटकी
जब इन्हें देव युगल झिटकु - मिटकी के रूप में बनाया जाता है, तब इन दोनों को एक दूसरे का हाथ पकड़े बनाया जाता है। झिटकू को सिर पर पगड़ी, दायें हाथ में टंगिया लिए तथा दोनों के बीच में एक त्रिशूल बनाया जाता है।
आह्वान के समय जब यह देवी सिरहा पर आती है, तब वह नौकीले त्रिशूल की नोक पर पेट के बल लेट कर फिरकी की तरह घूमता है। यह उसकी सत्यता की पहचान होती है।
किवदंती के अनुसार पैंड्राऔण्ड ग्राम में मिटकि अपने सात भाईयों के साथ रहती थी। वह भाइयों से छोटी थी। उसके विवाह के लिए झिटकु लमसेना, जवाई के रूप में उसके यहां तीन वर्ष तक रह कर घर का कार्य करता रहा। बाद में उनका विवाह हो गया और उन्होंने अपना अलग घर बसाया। एक बार झिटकु और मिटकी के सातों भाइयों ने मिलकर एक बांध बनाया। जब बांध बन गया तब रात को देवी ने सपने में मिटकी के भाइयों से कहा कि तुम मुझे नरबलि दो तभी यह बांध सफल होगा। उन लोगों ने सभी प्रकार के प्रयत्न किये पर उन्हें बलि के लिए आदमी नहीं मिला। तब उन्होंने सोचा कि क्यों न झिटकु को बलि दे दिया जाये। यह सोचकर उन्होंने झिटकु की बलि चढ़ा दिया और उसका शरीर खेत की मेढ पर जमीन में गाड़ दिया।
जब शाम हुई और सातों भाई घर लौट कर गए तो मिटकी ने पूछा उसका पति क्यों नहीं आया। तब भाई बोले कि वे तो तालाब में उसे नहाता छोड़ कर घर चले आये हैं। पर जब रात तक झिटकु नहीं लौटा, तो मिटकि सब्बल और टोकरी लेकर झिटकु को ढूंढने निकली। चांदनी रात थी। उसने देखा कि एक स्थान पर झिटकु की उंगली मिट्टी से बाहर निकली हुई है। तब उसने सब्बल से जमीन खोदी और झिटकु के लाश को बाहर निकाला। झिटकु का अपने भाईयों द्वारा बलि दिए जाने से वह इतनी दुखी हुई की वहीं एक पेड़ से लटक कर फांसी लगाकर उसने आत्महत्या कर ली। तभी से बस्तर में ये देव युगल रूप में पूजे जाने लगे। इसके वंशज आज भी पैंड्राऔण्ड गांव में रहते हैं तथा इन देव पर चढ़ाया गया समस्त धन उन्हें समर्पित किया जाता है। यदि कोई अन्य उस धन का उपयोग करे तो देव उसे सताते है।
गप्पा घसिन
ये धन सम्पदा के देवता है। इन्हें सोना ,चांदी , रूपया, लोहे का सब्बल, कौढ़ी की टोकरी आदि चढ़ाते हैं। माघ माह में इतवार को इनकी जात्रा की जाती है तथा बकरा, मुर्गा आदि बलि दिया जाता है। झिटकु को सुअर चढ़ाया जाता है। इनका प्रमुख मंदिर पैण्ड्राऔण्ड गांव में है। कुछ लोग घर में भी इन्हे पूजते हैं।
रावदेव: इसकी धातु प्रतिमा में इसे घुड़सवार, पगड़ीधारी, हाथ में लाठी या सोटा लिए बनाया जाता है। इसका स्थान देवगुढ़ी में नहीं होता। इसका स्थान गांव की मेड़ पर साल वृक्ष के निचे होता है। वर्ष में एक बार धान की फसल काटने से पहले सारा गांव इसकी पूजा करता है। इस समय सभी लोग चन्दा करके इसे बकरा, मुर्गा, सूअर चढ़ाते हैं । यह बीमारी आदि से खेत और गांव की रक्षा करता है।
रावदेव
घोड़े पर सवार, हाथ में खांडा (तलवार), सिर पर मुकुट, राजाओं के गहने पहने, किसी झाड़ के नीचे माता मावली के साथ रहता है । किसी के बीमार होने पर इसे मानते हैं और बकरा या मुर्गा चढ़ाते हैं । माघ और चैत्र माह में इतवार या मंगलवार को इनकी यात्रा निकालते हैं ।
राजा राव के साथ अन्य राव भी होते हैं । जैसे मावली जंगलो की निवासी है, राव पहाड़ियों के निवासी है । रावों में महत्वपूर्ण राव हैं - नंदिराव, मतला राव, जाखराव, चिमराव, पंडरा राव, करिया राव, बागदि राव, नलाराव तथा कुमुरि राव। राव देवता की पहचान उनके झंडे से होती है। इन्हे मुर्गे और बकरी की बलि दी जाती है।
भैरमदेव : यह पुरुष देव है। इसे हाथ में तलवार ढाल लिये खड़ा बनाया जाता है। इसे घुड़सवार नहीं बनाया जाता क्युँकि वह घोड़े पर कभी नहीं बैठता।
भैरमदेव
राव भंगाराम : इस अश्वरोही पुरुष देवता के एक हाथ में तलवार तथा दूसरे में कभी-कभी ढाल रहती है। केशकाल घाट का उतरी क्षेत्र इसका मुख्य निवास स्थान है।
राव भंगाराम
सेन्दरी माता : इनकी प्रतिमा में इनको सिर पर मुकुट, दायें हाथ में माला , बायें हाथ में गुटाल लिए दिखाया जाता है। दोनों कंधों को जोड़ती वहाड़ी बनाई जाती है। इनकी कोई सवारी नहीं होती अत: इन्हे खड़ा या बैठा बनाते हैं। इसका स्थान गांव की मातागुढ़ी में होता है परन्तु कभी लोग इन्हे घर में भी पूजते है। लोग इन्हे नारियल , सुपारी , मुर्गा , बकरा चढ़ाते हैं। शरीर पर छोटे फोड़े , फ़ुंसी , खुजली आदि होने पर इसे सेन्दरी माता का प्रकोप माना जाता है।
भण्डारिन माता: धुर्वा आदिवासी क्षेत्र में इस देवी का मुख्य निवास है। इनकी पहचान जंगली भैसा के एक सींग के रूप में की जाती है।
लाड़ली बाई: काठ की डोली में सवार यह देवी आकृति है। इनका निवास स्थान संखड ग्राम में है।
सात बहनी माता : यह हिन्दुओं की सप्त मातृका की कल्पना पर आधारित है। बस्तर में इन बहनों को क्रमश : सोनमती,मात फूलमती , चिनमती , नीलमती कुमारी तथा गर्भवती के नाम से जाना जाता है।
सोनोदेवी माता : इसे एक हाथ में लकड़ी का टुकड़ा लिए इस द्विभुजा देवी रुप में दर्शाया जाता है।
बस्तर के कुछ देवी-देवता ऐसे है जिनके बारे में कुछ विवरण मिलता है परन्तु इनकी मूर्तियों की कोई विशिष्ठ पहचान नहीं हैं। जिनके घर में अपना देव स्थान होता है वे अपने पूर्वजो से यह तो जान लेते है कि उनके घर में किन-किन देवी-देवताओं का स्थान है परन्तु वे यह नहीं जानते है कि कौन सी मूर्ति किस देवी या देवता की है।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.