बिहार के चम्पारण ज़िले की माटी की अपनी विशेषता है। इसका अपना इतिहास रहा है। जहाँ एक तरफ़ ये महात्मा गांधी की कर्मभूमि है वहीं ये धरती भगवान बुद्ध के इतिहास के साथ भी जुड़ी है। ये धरती पूरे विश्व में फैले बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए हमेशा से ख़ास रही है। सम्राट अशोक और महात्मा बुद्ध की याद में इतराती रही है। लेकिन धीरे-धीरे ये धरती सुविधाओं के अभाव में मद्धम सी पड़ने लगी है। देश की पुरानी मगर बेहद ही महत्वपूर्ण सांस्कृतिक विरासत धुंधली होने लगी है।
बदहाल लौरिया नंदनगढ़
बिहार के पश्चिम चम्पारण के ज़िला मुख्यालय बेतिया से 14 मील दूर लौरिया नंदनगढ़ का बौद्ध इतिहास क़ाफ़ी महत्वपूर्ण है, लेकिन अब ये ऐतिहासिक धरोहर बदहाल है। इसकी कोई ख़ैर-ख़बर लेने वाला नहीं है। यहाँ लगे बोर्ड से भी इसका इतिहास धीरे-धीरे ग़ायब होता नज़र आ रहा है। यही वजह है कि यह स्थानीय लोगों की नज़र में ऐतिहासिक धरोहर से अधिक प्रेमी जोड़ों का आदर्श स्थान बन चुका है। श्रेणीबद्ध खुदाई द्वारा ईंट से निर्मित 24.38 मीटर ऊंचे स्तूप के अवशेषों पर स्थानीय महिलाएं घास काटतीं या इस पर उग आए पेड़ों से अपने घर के चूल्हे के लिए लकड़ियाँ तोड़ती ज़रूर मिल जाएंगी। स्तूप के आस-पास की बाउंड्री वाल टूटी हुई है। स्थानीय लोग अपनी बकरियों व भैसों को लेकर घुस जाते हैं।
यहाँ बतौर माली काम कर रहे शंकर यादव कहते हैं, “2005 में स्थानीय विधायक ने गार्डेनिंग के काम की शुरूआत करवाई तो मुझे यहाँ नौकरी मिली। लेकिन 2005 से न यहाँ कुछ बदला और न ही मेरी ज़िन्दगी में, बल्कि दोनों ही धीरे-धीरे बदहाल होते जा रहे हैं। देश काफ़ी बदल चुका है। महँगाई आसमान पर पहुँच चुकी है। लेकिन पिछले 15 सालों से छः हज़ार की नौकरी की ख़ातिर इसकी देखभाल कर रहा हूँ।“
वो आगे बताते हैं कि यहाँ विदेशी लोग आते हैं। पूजा-अर्चना करते हैं। परिक्रमा करते हैं। लोगों में प्रसाद वितरण भी करते हैं। लेकिन आस-पास के लोगों के लिए ये सिर्फ़ टहलने की जगह है। ये पूछने पर कि सरकारी अधिकारी लोग आते हैं? इस पर वो बताते हैं कि, “हाँ, आते हैं, साल में एक दो बार ही आते हैं।’’
शंकर यादव की भी ख़्वाहिश है कि इस ऐतिहासिक धरोहर के विकास की ओर अगर सरकार ध्यान दे दे तो क़ाफ़ी पर्यटक आएंगे। इससे पूरे विश्व में चम्पारण के इस नंदनगढ़ का नाम होगा। लेकिन सच तो ये है कि चंपारण का लौरिया स्थित नंदनगढ़ बौद्ध स्तूप राष्ट्रीय मानचित्र से काफ़ी दूर हो चुका है। इसकी देख-रेख को लेकर सरकार बिल्कुल भी चिंतित नहीं है। जबकि लौरिया नंदनगढ़ की ब्रांडिंग बिहार सरकार इंग्लैंड में जाकर भी कर चुकी है। एक ख़बर के मुताबिक़ साल 2019 में विशेषज्ञों की एक टीम ने इंग्लैंड में आयोजित बौद्ध धर्मावलंबियों के एक कार्यक्रम में शिरकत की और वहाँ से कई कारगर जानकारी भी हासिल की। इस कार्यक्रम में बिहार सरकार के इन प्रतिनिधयों ने नंदनगढ़ परिसर को विकसित करने की दिशा में कई प्रेजेंटेशन भी दिखाए व इस क्षेत्र की ब्रांडिंग भी की।
इतिहास से अनभिज्ञ हैं लोग
लौरिया नंदनगढ़ से कुछ ही दूरी पर अशोक स्तंभ, एक बड़े स्तूप का भग्नावशेष और कुछ पुरानी समाधि के टीले हैं। इस स्तंभ के आस-पास स्थानीय लोग बैठकर ताश खेलते हैं, वहीं समाधि या टीले को कोई पूछने वाला नहीं है। यहाँ ज़्यादातर लोग इसके इतिहास से अनजान हैं।
खुद पुरातत्त्वशास्त्री अलेक्जेंडर कनिंघम सन् 1880 में लिखी अपनी रिपोर्ट में लिख चुके हैं कि, ‘स्तंभ अब लिंगराम के रूप में पूजा की वस्तु बन गया है। जब मैं शिलालेख की प्रतिलिपि बना रहा था, तो दो महिलाओं और एक बच्चे के साथ एक आदमी ने खंभे से पहले एक छोटा झंडा स्थापित किया और उसके चारों ओर मिठाइयों का प्रसाद रखा[1]।’ वो आगे लिखते हैं कि, ‘कहा जाता है कि स्तंभ का निर्माण राजा भीम मारी ने किया था। ये पांच पांडव भाइयों में से एक थे। लेकिन मैं ‘भीम मारी’ के संबंध में यहाँ कुछ नहीं पा सका। खुदाई में मिले चांदी के सिक्कों में से एक छोटा पंच-चिह्नित सिक्का मिला। ये सिक्के निश्चित रूप से सिकंदर महान के समय के पहले के हैं, और मेरा मानना है कि उनमें से कई 1000 ईसा पूर्व से भी पुराने हैं बल्कि शायद उससे भी पुराना[2]।’ यहाँ बता दें कि इस पर अशोक के संदेश लिखे हैं, बिल्कुल ऐसे ही संदेश अरेराज के अशोक स्तंभ पर भी मौजूद हैं।
कोई नहीं है पूछने वाला
लौरिया अरेराज के अशोक स्तंभ को भी कोई पूछने वाला नहीं है। शायद यही वजह है कि स्तंभ के निचले सतह के प्लास्टर अब गिरने लगे हैं। प्लास्टर गिरने की वजह से स्तंभ के कमज़ोर होने की संभावना बढ़ गई है। जब हम यहाँ पहुंचे तो आसमान में परिन्दों के अलावा इसकी देख-रेख या इसे देखने व निहारने वाला कोई नहीं था। ये पश्चिम चम्पारण में गोविन्दगंज थाने से चार मील उत्तर है, जो केसरिया और बेतिया के बीच में पड़ता है। यह जगह बहुत ही एकांत में है और ध्यान आकर्षित करने के लिए यहाँ अशोक स्तंभ के अलावा कुछ भी नहीं है। लेकिन इसी परिसर में स्तंभ के क़रीब ज़मीन से कुछ ही ऊँचाई पर कुछ अवशेष ज़रूर नज़र आते हैं। लेकिन इन अवशेषों के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं है और न ही यहाँ कोई इस संबंध में जानकारी देने के लिए उपलब्ध है। इतना ही नहीं, इस परिसर से सटे लोगों के मकान भी बन चुके हैं, जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियम-क़ानून के मुताबिक़ एक अपराध है।
वहीं पश्चिम चम्पारण ज़िले के बिल्कुल उत्तर भाग में गौनाहा से कुछ दूर स्थित पिपरिया गांव के रमपुरवा में मौजूद अशोक स्तंभ की हालत और भी ख़स्ताहाल है। यहाँ के ऐतिहासिक अशोक स्तंभ में अब दरारें पड़ने लगी हैं। स्तंभ पर सम्राट अशोक द्वारा पाली भाषा में अंकित संदेश भी धूमिल होते जा रहे हैं। इसकी देख-रेख कर रहे योगेंद्र उरांव की मानें तो इसकी सूचना पुरातत्व विभाग को है। बावजूद इसके इस दिशा में अब तक कोई पहल होती नज़र नहीं आ रही है। दिलचस्प बात यह है कि 11 नवंबर, 2011 को यहाँ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी आ चुके हैं। उन्होंने इसके बेहतर रख-रखाव का आदेश भी दिया था। लेकिन, उनके आदेश के बाद भी सरकार की ओर से इस स्तंभ को सुरक्षित व संरक्षित करने की तरफ़ कोई ठोस पहल नहीं की गई।
बता दें कि यहाँ मौजूद दो अशोक स्तंभ के शीर्षों में एक ‘सिंह शीर्ष’ इंडियन म्यूजियम कलकता में संरक्षित है। तो वहीं ‘वृषभ शीर्ष’ देश की राजधानी नई दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में रखा गया है। कहा जाता है कि जब महात्मा गौतम बुद्ध कपिलवस्तु से निकले तो रामपुरवा पहुंचने के बाद ही उन्होंने अपने सारथी ‘चंदक’ को वापस भेज दिया और यहीं से अपनी राजशाही ज़िन्दगी का त्याग कर भिक्षु का जीवन धारण कर लिया था।
अवशेष पर ही बन चुका है शौचालय
विश्व प्रसिद्ध केसरिया बौद्ध स्तूप की कहानी इससे कहीं आगे है। इसके देख-रेख की ज़िम्मेदारी सहेन्द्र प्रसाद यादव निभा रहे हैं। इनके अलावा तीन और लोग पार्ट-टाइम काम के लिए बहाल हैं। सहेन्द्र यादव के मुताबिक़ 1998 में इस स्तूप की खुदाई भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पटना सर्किल द्वारा शुरू हुई। लेकिन 60 फ़ीसद ही खुदाई की जा सकी। क्योंकि पटना सर्किल से प्रसिद्ध आर्कियोलॉजिस्ट के.के. मोहम्मद के चले जाने के बाद काम रूक गया। 2018 में पुरातत्व उत्खनन शाखा-III द्वारा दुबारा यह काम शुरू हुआ लेकिन ये काम कुछ ही दिनों में रूक गया।
गंभीर मुद्दा यह है कि यहाँ एक शौचालय का निर्माण किया गया। लेकिन इस बीच जब 2018 में खुदाई का काम चला तो मालूम चला कि शौचालय ग़लत बन गया है। अभी यहाँ भी इस स्तूप की दीवारें नज़र आने लगी हैं। उम्मीद है कि जब यहाँ पूर्ण खुदाई होगी तो पता चलेगा कि ये शौचालय के नीचे स्तूप मौजूद है।
यहाँ मुल्क के कोने-कोने से पर्यटक आते हैं। उन्हें इसका इतिहास मालूम है, लेकिन यहाँ के स्थानीय लोग इसका सही इतिहास बहुत कम ही जानते हैं। कुछ लोग इसी परिसर में मौजूद मंदिर के साथ जोड़कर देखते हैं, और बताते हैं कि प्राचीन ज़माने में यह भी मंदिर ही रही है। वहीं यहाँ इसकी देख-रेख के लिए तैनात बिहार पुलिस के जवान बताते हैं कि यहाँ बुद्ध बाबा की मूर्तियां थीं, जिसे बाबर ने तोड़ दिया। ये कहने पर कि यहाँ बाबर कब आ गया?बाबर तो कभी बिहार आया ही नहीं, उनका सीधा जवाब था— तो उसने किसी मुस्लिम आक्रांता को भेजा था। अब यही इतिहास वो यहाँ आने वाले हर पर्यटक को बताने व समझाने की कोशिश करते हैं।
इतना ही नहीं, ये विश्व स्तरीय बौद्ध स्तूप तमाम बुनियादी सुविधाओं से महरूम है। पर्यटकों के लिए किसी भी तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। जब विदेशों से आने वाले पर्यटकों की परेशानी बढ़ गई है तो थाईलैंड ने यहाँ एक थाई मंदिर का निर्माण किया है। साथ ही पर्यटकों के लिए रहने व शौचालय इत्यादि की भी व्यवस्था है।

बता दें कि ये बौद्ध स्तूप दुनिया का सबसे लंबा और सबसे बड़ा स्तूप है। 104 फीट की ऊंचाई वाला ये स्तूप जावा में स्थित प्रसिद्ध बोरोबोडुर स्तूप की तुलना में एक फीट लंबा है, जिसे यूनेस्को ने दुनिया के सबसे ऊंचे बौद्ध स्मारक के रूप में मान्यता दी थी। बिहार में 1934 के भूकंप से पहले केसरिया स्तूप 123 फीट लंबा था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुताबिक़ जब भारत में बौद्ध धर्म पनप रहा था, केसरिया स्तूप 150 फ़ीट और बोरोबोडुर स्तूप 138 फीट लंबा था। लेकिन वर्तमान में केसरिया की ऊंचाई 104 फीट और बोरोबोडूर की ऊंचाई 103 फीट तक सीमित होकर रह गई है। वहीं सांची स्तूप जो विश्व धरोहर स्मारक में शामिल है, की ऊंचाई मात्र 77.50 फीट है।
यह माना जाता है कि महात्मा बुद्ध ने यहाँ अपने अंतिम दिनों में अपने भीख का कटोरा दान किया था। इतने शानदार इतिहास के बावजूद यहाँ आने वाले पर्यटकों की संख्या बेहद ही कम है। ज्यादातर बौद्ध भिक्षु ही तीर्थयात्रा के दौरान यहाँ आ पाते हैं। इसी साल (2019) जनवरी महीने में भूटान की राजकुमारी ने यहाँ पहुंच कर बौद्ध स्तूप का दर्शन और पूजा-अर्चना की थी, लेकिन बावजूद इसके आस-पास के लोग भी इसके इतिहास से बहुत ज़्यादा परिचित नहीं हैं। ऐसे में ये स्तूप अपने सभी रहस्यों को छिपाकर ख़ामोश पड़ा है।
जिस तरह से चम्पारण में ऐतिहासिक बौद्ध धरोहर मोतियों की तरह बिखरे हैं, उसे बस सहेजने की ज़रूरत है। सरकार अगर इन बिखरे धरोहरों को सजा दे तो पूरी दुनिया में न सिर्फ़ चम्पारण की, बल्कि बिहार व भारत की एक अलग पहचान बनेगी। चम्पारण की इस धरती से पूरी दुनिया को न सिर्फ़ बुद्ध का शांति संदेश मिलेगा, बल्कि यहाँ आने वाले पर्यटक महात्मा गांधी के सत्य व अहिंसा का पैग़ाम भी लेकर लौटेंगे। सच पूछें तो बौद्ध सांस्कृतिक विरासत के संबंध में चम्पारण का इतिहास एक ऐसी चीज़ है, जिसे बहुत अधिक नहीं देखा गया है. लेकिन अगर एक बार दुनिया को इस जगह की प्रासंगिकता के बारे में अधिक पता चल जाएगा, तो जो लोग बौद्ध धर्म के दर्शन के लिए आकर्षित महसूस करते हैं, वे इस धरोहर को देखने विश्व भर से अधिक से अधिक संख्या में आएंगे।
[1] Archeological Survey of India, Four Reports made during the Years 1862-65, by Alexander Cunningham, Volume 1 (Simla: Government Central Press, 1871), 70.
[2] वही, पृष्ठ 70.
सन्दर्भ-
Archeological Survey of India (ASI). Four Reports made during the Years 1862-65, by Alexander Cunningham, Volume 1. Simla: Government Central Press, 1871.